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भारत में युद्धकाव्य काव्य की एक समृद्ध और प्राचीन परम्परा रही है। युद्ध और वीरता के भावों को व्यक्त करने के लिए कवियों ने विभिन्न कालों में अपनी लेखनी का उपयोग किया है। वैदिक साहित्य में युद्धों और योद्धाओं के पराक्रम का वर्णन मिलता है। इंद्र जैसे देवताओं को योद्धा के रूप में चित्रित किया गया है और उनकी विजय गाथाएँ गाई गई हैं। रामायण और महाभारत भी भारतीय युद्धकाव्य परम्परा के दो महानतम उदाहरण हैं जिनमें विस्तृत युद्ध वर्णन, योद्धाओं के शौर्य, त्याग और नैतिक मूल्यों का चित्रण किया गया है। भगवत गीता, जो महाभारत का ही एक भाग है, युद्ध के दार्शनिक और नैतिक पहलुओं पर प्रकाश डालती है।

मध्यकालीन परिपेक्ष में देखें तो योद्धा संस्कृति की जब भी बात होती है तो राजपूत योद्धाओं का ज़िक्र आना लाज़मी हो जाता है, क्योंकि राजपूत लड़ाकाओं का दुनिया भर के योद्धाओं जैसे इंग्लैंड के नाइट, जापान के सामुराई, नार्वेजियन परम्परा के वाइकिंग, यूनानी स्पार्टन, नेपाली गुरखे, सीथियन और अफगानी पश्तूनों की तरह युद्धरत रहने का इतिहास रहा है। सामाजिक और शैक्षिक संदर्भों के अनुसार, राजपूत एक जटिल भारतीय सामाजिक समूह है जो योद्धाओं के रूप में जाने जाते हैं। यह कई जातियों, सामाजिक समूहों और स्थानीय समुदायों से मिलकर बने हैं। चौथी सदी के बाद, राजपूत राजाओं ने मध्य और उत्तरी भारत के इतिहास में बड़ी भूमिका निभाई। उनका असर राजस्थान और उससे जुड़े इलाकों में रहा और इसके साथ ही यह समूह भारत के अलग-अलग हिस्सों और आज के पाकिस्तान तक फैला हुआ था।
योद्धाओं के अफसानानिगार
इतिहास को दर्ज करने के भी कई तरीके होते हैं। जब राजपूत योद्धाओं के इतिहास को टटोला जाता है तब हमें चारण काव्य के माध्यम से इस लड़ाका कौम के इतिहास और उससे जुड़ी भावनात्मकता का भान होता है। लय, संगीत और काव्य की इस अद्भुत जुगलबंदी ने राजपूत इतिहास को एक अलग आयाम दिया है। युद्ध में बजती रणभेरियों को यादगार काव्य में बदल अमर करने वाले चारणों की पारम्परिक इतिहासलेखन में विशिष्ट जगह रही है।
"पूत कटियो बख्तर पर, ब्याहण दूध सिवाय।
छींणी मलमल ओढीयां, बहु बलेबा जाय।।"

राजस्थानी युद्ध काव्य में आने वाले ऐसे छंदों के माध्यम से राजपूत योद्धाओं के बलिदान का बखान मिलता है। इस काव्य के माध्यम से कवि बताता है कि एक योद्धा की मां कह रही है कि - मेरे पुत्र ने युद्ध में बख्तर पहनकर युद्ध किया व वीरगती को प्राप्त हो गया किंतु मेरी समधन का दूध यानी मेरी पुत्र वधु का साहस व वीरत्व तो उससे भी महान है क्योंकि वह तो झीणी मलमल का वेश पहनकर बिना किसी कवच के बलिदान देने (जौहर) जा रही है।
योद्धा राजपूत वंशों के लिए चारणों द्वारा कविताएँ लिखने की परंपरा की जड़ें भारत के राजस्थान की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में बसी हैं। राजपूत योद्धा संस्कृति में बहादुरी, आत्मसम्मान और बलिदान को बहुत महत्व दिया जाता था। राजपूत युद्ध संस्कृति में चारणों ने बतौर इतिहासकार, कहानीकार और सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षक के रूप में एक महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका निभाई। राजपूत योद्धाओं को समर्पित चारण काव्य उनके इतिहास को संरक्षित करने, उनके वीरों के नायकत्व का जश्न मनाने और उनकी सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ करने का एक तरीका था। इनके लेखन का विस्तार और कशिश ऐसी रही है कि इतिहासकार, साहित्यकार, शोधार्थी और मानवविज्ञानी भी राजपूत योद्धाओं के इतिहास को चारण काव्य के लेंस से देखते-परखते आए हैं।
राजस्थान में चारण परंपरा को तीन प्रमुख सामाजिक समूहों द्वारा आगे बढ़ाया गया: भाट, चारण और मांगणियार। जहाँ भाट समुदाय, राजपूत योद्धाओं की वंशावली के रूप में पारिवारिक इतिहास का रिकॉर्ड रखते थे और ऐतिहासिक कथाओं के मौखिक भंडार के रूप में भी काम करते थे। इसी तरह, चारण अपनी काव्य कौशल के लिए जाने जाते थे और मार्मिक युद्ध कविताएँ, दोहे, छंद लिखा करते थे। अंत में, मांगणियार या लँगा वंशानुगत संगीतकार थे जिन्होंने राजपूतों के इतिहास, संस्कृति और परंपराओं को अपने संगीत के माध्यम से मौखिक कथाओं, गीतों और वंशावलियों के साथ जोड़कर संरक्षित और प्रचारित किया।
राजपूत जजमानों और इन पारम्परिक अफसानानिगारों के बीच का संबंध पारस्परिक निर्भरता का हुआ करता था। चारणों, भाटों और मांगणियारों ने राजपूत विरासत का दस्तावेजीकरण, संरक्षण और महिमामंडन किया, जबकि राजपूत शासकों ने अक्सर इन्हें संरक्षण दिया, वित्तीय सहायता और सामाजिक मान्यता प्रदान की। आज भी राजपूत समुदाय के लोग अपने मांगणियारों को ब्याह, शादी या मरकत में बढ़-चढ़ कर अनुदान देते हैं और सांप्रदायिकता या जातीय भेदभाव से अनलग रहते हुए इनसे सामाजिक आपसदारी का रिश्ता कायम रखे हुए हैं।
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